धर्म की कसौटी
श्रूयतां धर्मसर्वस्वं, श्रूत्वा चैव अनुवर्त्यताम् ।
आत्मनः प्रतिकूलानि परेशां न समाचरेत् ।।
--- महर्षि वेद व्यास
( धर्म का सर्वस्व क्या है , सुनो ! और सुनकर इसका अनुगमन करो । जो आचरण स्वयं के प्रतिकूल हो , वैसा आचरण दूसरों के साथ नहीं करना चाहिये । )
धर्म के लक्षण
मनु स्मृति में मनु कहते हैं -
धृति क्षमा दमोस्तेयं, शौचं इन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो, दसकं धर्म लक्षणम ॥
( धर्म के दस लक्षण हैं - धैर्य , क्षमा , संयम , चोरी न करना , स्वच्छता , इन्द्रियों को वश मे रखना , बुद्धि , विद्या , सत्य और क्रोध न करना ( अक्रोध ) )
तुलसी का धर्म-रथ
रामचरितमानस के लंका काण्ड में गोस्वामी तुलसीदास ने धर्म का रथ के रूप में बड़ा ही सुन्दर चित्रण किया है । प्रसंग है - युद्ध में रावण रथ पर अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर आता है ; राम बिना रथ के ही हैं ..
रावण रथी बिरथ रघुबीरा। देखि बिभीषन भयउ अधीरा।।
अधिक प्रीति मन भा संदेहा। बंदि चरन कह सहित सनेहा।।
नाथ न रथ नहिं तन पद त्राना। केहि बिधि जितब बीर बलवाना।।
सुनहु सखा कह कृपानिधाना। जेहिं जय होइ सो स्यंदन आना।।
सौरज धीरज तेहि रथ चाका । सत्य सील दृढ़ ध्वजा पताका ।।
बल बिबेक दम परहित घोरे । छमा कृपा समता रजु जोरे ।।
ईस भजनु सारथी सुजाना । बिरति चर्म संतोष कृपाना ।।
दान परसु बुधि सक्ति प्रचंड़ा । बर बिग्यान कठिन कोदंडा ।।
अमल अचल मन त्रोन समाना । सम जम नियम सिलीमुख नाना ।।
कवच अभेद बिप्र गुर पूजा । एहि सम बिजय उपाय न दूजा ।।
सखा धर्ममय अस रथ जाकें । जीतन कहँ न कतहुँ रिपु ताकें ।।
महा अजय संसार रिपु जीति सकइ सो बीर ।
जाकें अस रथ होइ दृढ़ सुनहु सखा मतिधीर ।।
सर्वश्रेष्ठ धर्म ( परम् धर्म)
इसके अलावा शास्त्रों में सर्वश्रेष्ठ धर्म को लेकर बहुत चर्चा हुई है । कोई अहिंसा को सबसे बड़ा धर्म मानता है तो कोई परोपकार को; कोई सत्य को पर्म् धर्म कहता है तो कोई आचार को ।
अहिंसा परमो धर्म: ।
परहित सरिस धरम नहिं भाई ।
-- तुलसीदास
धरमु न दूसर सत्य समाना ।
आगम निगम पुरान बखाना ।।
-- तुलसीदास
नहि सत्यात् परो धर्म: त्रिषु लोकेषु विद्यते।
आचार: परमो धर्म:।
समाजिक सुव्यवस्था का साधन - धर्म
'राज्य' की निर्मिति के सम्बन्ध में महाभारत के शान्तिपर्व में सार्थक चर्चा आयी है । महाराज युधिष्ठिर, शरशय्या पर पड़े भीष्म पितामह से पूछते हैं कि ''पितामह, यह तो बताइये कि राजा, राज्य कैसे निर्माण हुये ?'' भीष्म पितामह का उत्तार प्रसिध्द है । उन्होंने कहा कि एक समय ऐसा था कि जब कोई राजा नहीं था; राज्य नहीं था; दण्ड नहीं था; दण्ड देने की कोई रचना भी नहीं थी । सारी जनता धर्म के द्वारा ही एक दूसरे की रक्षा कर लेती थी ।
न वै राज्यं न राजाऽसीत्, न दण्डो न च दाण्डिक :।
धर्मेणैव प्रजा: सर्वा, रक्षन्ति स्म परस्परम् ॥
साधु/सज्जन को धर्म द्वारा अभय की घोषणा (वादा)
धर्मो रक्षति रक्षित: ।
(धर्म की रक्षा करने पर धर्म भी मनुष्य की रक्षा करता है)
यदा यदा हि धर्मस्य, ग्लानिर्भवति भारत ।
अभ्युत्थानमधर्मस्य, तदात्मानं सृजाम्यहम् ।।
परित्राणाय साधुनां, विनाशाय च दुस्कृताम् ।
धर्म संस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे ।।
धर्म और मजहब में बहुत अन्तर है
जैसे धर्मयुद्ध जिहाद नहीं है वैसे ही धर्म और मजहब बिलकुल अलग-अलग कांसेप्ट हैं; यहां तक कि कभी-कभी मजहब धर्म का बिलोम भी बन जाता है ।
धर्म किसी कर्मकाण्ड, अंधविश्वास, अंधश्रद्धा, लकीर-की-फकीरी, रूढ़िवाद आदि का नाम नहीं है । यहां तक कि धर्म ईश्वर से भी स्वतन्त्र कांसेप्ट है । धर्म की धारणा नितान्त सेक्युलर धारणा है ।
2 comments:
हरि ओम!!!!
अच्छी बातें बताई, धन्यवाद!
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