अकस्मात , स्वछन्द एवम उन्मुक्त विचारों को मूर्त रूप देना तथा उन्हे सही दिशा व गति प्रदान करना - अपनी भाषा हिन्दी में ।
29 June, 2008
भारत में गुलाम संस्कारों के अवशेष
१) अंग्रेजी भाषा - जिसे हम 'सुपर गुलामों' ने सिर पर बैठा रखा है। यहाँ की हर अर्ध-शिक्षित माँ यही कहते हुए सुनी जा सकती है की मेरे बेटे को तो हिन्दी की गिनती आती ही नहीं है।
२) बात-बात पर 'सर' का प्रयोग - यूरोप के किसी व्यक्ति को 'सर' कह दो तो वह आपको आँख फ़ाड़कर देखगा। भारत में हर किसी को 'सर' कह दिया जाता है। एक मानेकशा ही थे जिन्होने इन्दिरा जी को 'मेडम' कहने से मना कर दिया था।
३) कालोनी - भारत के किसी भी महानगर में हर किलोमीटर पर कोई न कोई "कालोनी" है। किसी समय यह शब्द "बाहर से आये अंग्रेज मालिकों" की बस्ती को कहते थे। हम अपने को ही गाली क्यों देना चाहते हैं?
४) गोरी चमड़ी के प्रति असहज भावना - इस पर तो कुछ कहने की जरूरत ही नहीं है।
५) वंशवाद - भारत में वंसवाद अभी भी फल-फूल रहा है। यह अपने-आप में हमारी अप्रजातांत्रिक गुलामी का कारण भी है और लक्षण भी। इसी से मिलता -जुलता कुसंस्कार है किसी छोटे-मोटे नेता के आगे-पीछे सैकड़ों वाहनों की दौड़ और किसी अभिनेता/नेता/क्रिकेट स्टार के दर्शनों के लिए उमड़ने वाली भीड़ ।
६) भ्रष्टाचार - किसी भी समाज को गुलाम बनाने के लिये उसमें भ्रष्टाचार के बीज बोना सबसे कारगर तरीका माना जाता है। अंग्रेजों ने यह काम बहुत सफ़ाई के साथ किया। हम आज भी इससे निजात नहीं पा सके हैं। किसी भी समाज में भ्रष्टाचार और विकास का ३६ का आंकड़ा है। इंग्लैण्ड लौटने पर क्लाइव के विरुद्ध भ्रष्टाचार का मुकदमा चला था और उसको सजा हुई थी।
७) दिखावा और डींग हांकना - भारत में दिखावा करने के चक्कर में लोग अपना खेत-बारी, जमीन-जायजात बेच देते हैं। पर सत्य को स्वीकार नहीं कर सकते कि उनके पास साधन और अर्थ की कमी है।
८) असमान स्कूली व्यवस्था - यह भी गुलामी की देन है जो अब तक बनी हुई है और अब फल-फूल रही है।
९) पुलिस से डर - विकसित देशों में लोग पुलिस को अपना हितैषी समझते हैं। ब्रिटिश काल में भारत में पुलिस अत्याचार और भ्रष्टाचार की पर्याय थी। इसमें कोई खास बदलाव नहीं आया है।
१०) क्रिकेट - कोई रचनात्मक काम करने की जरूरत ही क्या है? बस क्रिकेट सुनो, क्रिकेट खेलो, क्रिकेट की चर्चा करो..
११) टाई - इस गरम देश में टाई? गुलामी के संस्कार इतनी जल्दी कैसे मिट सकते हैं?
१२) 'विदेशी' का मोह - वैश्वीकरण का आन्दोलन भी भारतीयों के 'इम्पोर्टेड' सामान के मोह को कम नही कर पाया है। आज भी किसी 'विदेशी' की कही हुई बात को यहाँ अधिक प्रामाणिक माना जाता है। हम अपने देश के सुन्दरतम स्थानों को भले ही न देख पायें , विदेश-गमन के लिए हजार बहाने निकाल लेते है। हमारे बच्चों को भारत के भूगोल का भले ही ज्ञान न हो, वे अमेरिका, ब्रिटेन और कनाडा का भूगोल अच्छी तरह जानते हैं।
थमते-थमते थमेंगे ये आँसू ।
रोना है ये कोई हंसना नही है।।
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13 comments:
सही कह रहे हैं अनुनाद भाई,
औपनिवेशिक गुलाम मानसिकता से अभी तक हम लोगों का पीछा नहीं छूटा है,
भाषा कोई बुरी नहीं होती, लेकिन अपनी भाषा को हेय दृष्टि से देखना और दूसरी भाषा को सिर आंखों पर चढ़ाना बहुत बुरा होता है...
वाह, आपने तो मन की बात कह दी।
अनुनाद सिंह भाई मे मई मे १०, १५ दिनो के लिये आया मुझे बहुत कम लोग आजाद मिले, ओर असली जिन्दगी जीते, बाकी सब मानसिक रुप से गुलाम ओर दिखावे की जिन्दगी जीते ही मिले, आप का लेख बहुत ही सटीक हे, लेकिन यह बिमारी तो ओर ज्यादा फ़ेल रही हे, धन्यवाद एक सच्चाई से रुबा रुब करवाने के लिये.
बीमारी के कीड़ों को चुन-चुनकर इकठ्ठा कर दिया आपने। अब इन्हें मारने के लिए अभियान चलाकर सफाई करने की ज़रूरत है। यह करने के लिए कोई अवतारी पुरुष नहीं आने वाला। हमलोग ही शुरुआत करें…
उत्तम लेखन।
In Court, advocates are using balck coats,TC on sation doing the same thing. Still British era prevails n we declare that we are free nation. :)
मिटते मिटते मिटेंगे ये आँसू ।
रोना है ये कोई हंसना नही है।।
--आपकी सारी बात का पूरा सार इन दो लाईनों में.
भोत सही लिखा है सर!
ओह, मैं तो गुलामी और प्रतीकों को स्मरण नहीं करना चाहता। जब समझ में आये कि यह व्यवहार मनोनुकूल नहीं दासत्व है - उसे दूर करने के चेतन प्रयास होने लगते हैं!
वंशवाद तो हमारा अपना है, उसके लिए किसी को श्रेय देना गलत है :)
बाकि सब से सहमति.
आपने थोड़ी कही अनुनाद भाई
पर सार्थक कही...
मन की गहराई तक पहुँची.
भैय्या जी, आपने तो सत्य कह दिया .........
बहुत खूब लिखा है आपने ! ऐसे लेखो की और आवश्यकता है अनुनाद जी !
सत्य वचन पैना यथार्थ धन्यबाद मैं भी मध्य प्रदेश के अशोकनगर से हूँ आपके ज्ञान वर्धन हेतु बताया है कृपया अन्यथा न लें कृपया पधारें
http://manoria.blogspot.com and http://kanjiswami.blog.co.in
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