सबसे बडा कारण है फिल्मों का श्रव्य-दृष्य माध्यम होना । सर्वविदित है कि दृष्य माध्यम सर्वाधिक कारगर माध्यम है । श्रव्य और पाठ्य माध्यम इससे हजारो गुना कम कारगर हैं । एक मूढ मस्तिष्क भी , और यहाँ तक कि एक पशु भी, किसी दृष्य से बहुत सारी सामग्री ग्रहण कर लेता है ।
दूसरा कारण है फिल्म में बहुत सी विधाओं का घालमेल या मिश्रण का होना । फिल्म में सौन्दर्य उपासकों के लिये सेक्स होता है, कला के पारखियों के लिये अभिनय मिलता है, साहित्य-प्रेमियों को रोचक संवाद सुनने को मिलता है , चोर-उचक्कों को उनके व्यवसाय के गुर प्राप्त होते हैं, महिलाओं और फैशन-परस्तों को नये-नये डिजायन के वस्त्राम्बर देखने को मिलते हैं ।
इसका एक तकनीकी कारण भी है । वैसे चल-चित्रों के आये हुए बहुत दिन हो गये , लेकिन चित्रों का चलना अब भी अधिसंख्य लोगों के लिये कौतूहल का विषय है । बहुत से लोग इस कौतूहल के वजह से भी फिल्में देखे जा रहे हैं । किसी ने खूब कहा है कि कोई आदमी किसी विचार के समर्थन में अपना प्राण भी दे सकता है बशर्ते वह विचार उसको पूरी तरह समझ मे न आया हो ।
3 comments:
फ़िल्में देखना तो स्वभाविक है लेकिन फ़िल्म बनाना बहुत मेहनत का काम है। बिल्कुल वही फ़र्क जो गाड़ी बनाने और चलाने में होता है। एक या कई किताबों से एक छोटी सि फ़िल्म बनती है। लेकिन इन किताबों को कौन पढ़े, दो घंटे की फ़िल्म में सब समझ आ जाता है। बाकी फ़ायदे जो आपने गिनवाए, वो अलग।
अनुनाद जी,
बहुत छोटी पारी खेली। क्या बात है ?
-राजेश
Aapka Post bahut achha laga
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