19 September, 2005

अनुनाद विकिलोक में

पिछले दिनो विकि के संसार मे भ्रमण पर निकल पडा था । मुझे बहुत बडी गलतफहमी थी कि "विकि माने विकिपेडिया" । दिमाग तब खुला जब भटकते-भटकते विकि-विकि-वेब अथवा स्विचविकि जा पहुँचा । अब पता चला कि लोगों ने कैसे-कैसे विकि बना डाले हैं । पर इसमे अपने "सर्वज्ञ" का नाम नहीं है ।

मै सोचता था कि विकि अलग-अलग स्थानो पर स्थित अनेक लोगों द्वारा केवल सन्दर्भ सामग्री इकट्ठी करने का उपक्रम है । यहाँ भी मेरी सोच गलत साबित हुई । लोगों ने विकि के कैसे-कैसे उपयोग ढूँढ लिये हैं ।

विकि की इतनी प्रशंसा और उपयोग पढकर मेरे मन में आया कि भारत के लिये या हिन्दी के लिये अपना ही एक विकि होना चाहिये । पर विकिपेडिया में क्या बुराई है ? इस बात पर मैं कोई निश्चित मत नहीं बना पाया । "कौन सी मुक्त-स्रोत विकि आपके लिये अच्छी रहेगी ?" पढा , विकि-साफ्टवेयरों का तुलनात्मक अध्ययन और विकि-इन्जनों की परस्पर तुलना भी पढी ; पर बात न बनी ।

अब मेरे मन में आया कि यदि मैं एक नया विकि बनाने का निर्णय ले लूँ तो आगे क्या ? एक नया विकि कैसे आरम्भ करें ? इसमें संक्षेप में बहुत साफ-सुथरी जानकारी मिली । अब धीरे-धीरे कुछ-कुछ समझ में आने लगा था । थोडा और ढूढने पर पता चला कि व्यक्तिगत प्रयोग के लिये छोटी विकि भी बनायी जा सकती है एक ऐसी ही विकि है छोले_भटूरे_विकि जिसको बनाना दो मिनट का काम है ।

ये सब देखकर मैं भी विकि के समर्थन में आ गया । विकि इतनी प्रचलित हो चली है कि लोग इसके बारे अक्सर तरह-तरह के प्रश्न पूछते रहते हैं ।

अनुगूँज 14 : हिन्दी जाल जगत : आगे क्या ?




आलोक द्वारा उठाये गये इस "बोल्ड" प्रश्न की तारीफ़ से ही मैं अपनी बात प्रारम्भ करूँगा । मुझे ऐसा लगता है कि यह प्रश्न पूछना बहुत जरूरी था और अब देर हो रही थी । समय-समय पर पूछे गये ऐसे ही प्रश्न हमको भटकने से रोक सकते हैं । अतः आलोक को साधुवाद ।


आलोक के तीन प्रश्नो पर मेरे विचार , संक्षेप में :


(१) संजाल पर हिन्दी की वर्तमान स्थिति निश्चित ही हिन्दी प्रेमियों के लिये वांछनीय स्थिति नहीं है । इस स्थिति को अभी सन्तोषजनक भी नहीं कह सकते , वांछनीय स्थिति तो बहुत आगे की बात है । हाँ , स्थिति उत्साहवर्धक जरूर है ।

(२) जाल पर हिन्दी बढेगी और अधिक तेज गति से बढेगी । इसका कारण ये है कि अभी तक कम्प्यूटर पर हिन्दी का लिखना-पढना लगभग लोहे के चने चबाने जैसा था । लेकिन सरल और सर्वसुलभ औजारों के आ जाने से अब धीरे-धीरे ये बायें हाथ का खेल होता जा रहा है । जाल पर अंगरेजी जहाँ पिछले पच्चीस-तीस साल से अपनी जडें जमा रही थी , सही अर्थों में हिन्दी अभी एकाध साल पहले ही लगाया गया नया पौधा है । इसके अलावा हिन्दी की जन-शक्ति का नगण्य हिस्सा ही अभी इसमें योगदान कर पा रहा है । ये स्थिति शीघ्र बदलेगी ।


(३) संजाल पर हिन्दी का सर्वांगीण विकास होना जरूरी है , इसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता । हम सबको मिलकर "सर्वांगीण विकास" को और विस्तार से परिभाषित करना होगा । इस परिभाषा के आधार पर संजाल पर हिन्दी के विकास को दिशा देना हमारा कर्तव्य भी है , और महती आवश्यकता भी । आखिर "भटकने" और "प्रगति" में केवल दिशा का ही तो अन्तर है ।


संजाल पर हिन्दी के "सर्वांगीण विकास" के लिये क्या कुछ करना चाहिये , इस पर अगली प्रविष्टि मे अपने विचार व्यक्त करूँगा ।

18 September, 2005

तेरहवीं अनुगूँज : संगति की गति




प्रसिद्ध दार्शनिक एवं अर्थशास्त्री आदम स्मिथ का विचार था कि जब अमीर और गरीबी एक-दूसरे के साथ व्यापारिक सम्बन्ध बनाते हैं तो धीरे-धीरे दोनो के आजीविका के स्तर में समानता आने लगती है । यही संगति की गति है ।

यद्यपि स्मिथ ने संगति के आर्थिक पहलू को प्रकाशित किया फिर भी संगति का प्रभाव बहु-आयामी है । आधुनिक शिक्षा , वस्तुतः बौद्धिक-संगति का एक औपचारिक रूप है । गुरू का महत्व परोक्ष रूप से संगति के महत्व को कुछ और नाम देना है । आज भूमण्डलीकरण (ग्लोबलाइजेशन) के चहुँदिशि प्रशंसा हो रही है । भूमण्डलीकरण के लाभ भी तो वस्तुत: सत्संगति के ही लाभ हैं । तकनीकी क्षेत्र में "कोलैबोरेशन" के जो लाभ दीखते हैं वे सब तकनीकी-संगति के ही प्रभाव हैं । सामाजिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में तो संगति के प्रभावों पर बहुत कुछ लिखा और कहा गया है ।

संगणक और संजाल ने चिर परिचित सत्संगति को एक नया रूप प्रदान किया है । इस नये रूप में सत्संगति बहुत हद तक स्थान (देश) , समय (काल) और व्यक्ति (गुरू) की सीमाओं से मुक्त हो गयी है । संजाल-आधारित विभिन्न चर्चा-समूह , चिट्ठे और ई-पत्रादि इसके विविध रूप है । बहुत से लोगों का ऐसा विचार है इस नवीन संगति के प्रभाव से संसार का स्वरूप ही बदल जायेगा ।

खास बात यह है कि संगति का प्रभाव एकदिश ( यूनीडाइरेक्शनल ) न होकर द्विदिश या बहुदिश होता है । या यों कहें , केवल क्रिया न होकर क्रिया-प्रतिक्रिया जैसा है । आधुनिक शिक्षा के उच्चतम स्तर पर शिक्षक और शिक्षार्थी में भेद समाप्त हो जाता है । अक्सर गुरू , गुड ही रह जाते हैं और चेला , चीनी बन जता है ।

संगति का एक और प्रभाव देखने में आता है , उसका नाम है वैचारिक अनुनाद या रिजोनेन्स । प्राय: दो या अधिक व्यक्तियों के अपूर्ण विचार मिलकर एक पूर्ण और सार्थक रूप धारण कर लेते हैं ; या दो या अधिक व्यक्ति मिलकर कुछ ऐसा कर जाते हैं जो अकेले कभी संभव न होता । इसको चाहें तो आप सगति ( एक साथ उठना , बैठना या गति ) का प्रभाव मानें या संहति ( मास , एकता या एसोसिएशन ) का प्रभाव ।

संगति के नकारात्मक प्रभाव का नाम कुसंगति है । इससे सदा सचेत और सावधान रहना चाहिये । गेहूँ के साथ घुन का पिसना या रावण के पडोस मे बसने से समुद्र की महिमा घटना इसके कुछ उदाहरण हैं ।

सारतः यह कहना पर्याप्त होगा कि संगति का प्रभाव असंदिग्ध है , केवल उसकी मात्रा कम या अधिक अथवा धनात्मक या ऋणात्मक हो सकती है । पण्डित वह है जो संगति के प्रभाव को अधिकाधिक अर्थपूर्ण बनाने की कला जानता है ।