वर्तमान समय मे तमाम शब्दों के अर्थ अपने मूल अर्थ से काफी दूर चले गये हैं । हीरो , प्रेम , प्यार , मुहब्बत , नेता , सेक्युलरिज्म , पब्लिक-सर्वेन्ट आदि इसके कुछ उदाहरण हैं । यही हाल "धर्म" शब्द का भी हो चला है ( या कर दिया गया है )
किसी जमाने मे धर्म "शोध" का विषय था , चर्चा का विषय था । लोग प्रश्न करते थे, " सबसे बडा धर्म क्या है ?" , अमुक-अमुक स्थिति मे धर्म क्या है ?, धर्म के लक्षण क्या हैं , धर्म के सात ( या दस) प्रमुख लक्षण बताओ , आदि-आदि ।
बहुत से लोगों के चिन्तन और चर्चाओं के परिणामस्वरूप धर्म का एक अत्यन्त प्रगत रूप सामने आया था । जरा मनु द्वारा बताये गये धर्म के दस लक्षणों पर ध्यान दीजिये :
धृति क्षमा दमोस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो , दसकं धर्म लक्षणम ॥
( धैर्य , क्षमा , संयम , चोरी न करना , शौच ( स्वच्छता ), इन्द्रियों को वश मे रखना , बुद्धि , विद्या , सत्य और क्रोध न करना ; ये दस धर्म के लक्षण हैं । )
क्या धर्म के इन लक्षणों पर किसी को कोई ऐतराज हो सकता है ? किसी को कोई आपत्ति हो तो जरा सेक्युलरिज्म के दस लक्षण गिनाये । मुझे तो इन दस लक्षणो मे आधुनिक, प्रगतिशील और बौद्धिक समाज के निर्माण का "मैनिफेस्टो" दिख रहा है ।
महाभारतकार ( वेद व्यास ) ने तो इससे भी दो कदम आगे जाकर धर्म और अधर्म का " टेस्ट " तक बता दिया है :
श्रूयतां धर्म सर्वस्वं श्रूत्वा चैव अनुवर्त्यताम् ।
आत्मनः प्रतिकूलानि , परेषाम् न समाचरेत् ॥
( धर्म का सर्वस्व क्या है, सुनो और सुनकर उस पर चलो ! अपने को जो अच्छा न लगे, वैसा आचरण दूसरे के साथ नही करना चाहिये । )
इसीलिये जो धर्म को बुरा कहते हैं, उनसे पूछना चाहिये कि वे धर्म की बात कर रहे हैं या मजहब , सम्प्रदाय , रेलिजन , मत या पन्थ की ।
5 comments:
Religion is not all about ethics and idea of secularism is not all about pragmatism. The people, involve in the politics of religious identity tries to emphasis general ethical side of SMRITIs , leaving other side of the same texts- where it talks about social organization -redundant. Every religion has spiritual, ethical and (social) organizational aspect based on rituals. So here is ManuSmriti talks about acquisition of wealth by "Sudra"-
"No collection of wealth must be made by a Sudra, even though he be able (to do it); for a Sudra who has acquired wealth, gives pain to Brahmanas."
(Chapter-10 verse-129)
And here is ManuSmriti talks about punishment for different Varna for the same crime.
From chapter-11
"But if a Brahmana unintentionally kills a Kshatriya, he shall give, in order to purify himself, one thousand cows and a bull;
129. Or he may perform the penance prescribed for the murderer of a Brahmana during three years, controlling himself, wearing his hair in braids, staying far away from the village, and dwelling at the root of a tree.
130. A Brahmana who has slain a virtuous Vaisya, shall perform the same penance during one year, or he may give one hundred cows and one (bull).
131. He who has slain a Sudra, shall perform that whole penance during six months, or he may also give ten white cows and one bull to a Brahmana.
132. HAVING KILLED A CAT, AN ICHNEUMON, A BLUE JAY, A FROG, A DOG, AN IGUANA, AN OWL, OR A CROW, HE SHALL PERFORM THE PENANCE FOR THE MURDER OF A SUDRA; "
Secularism which gives stress on 'this-worldly' well-being of masses is also an ethical idea in itself. Vivekanand's and Gandhi's quest for the well being of "last man" was not devoid of any ethical or spiritual sense.
आपकी बात अक्षरशः सत्य है । परन्तु एक ही ग्रन्थ में परस्पर विरोधी बातों का होना बताता है कि दाल में कुछ काला है । ज्यादातर लोंगों का मानना है कि कुछ स्वार्थी तत्वों ने मूल ग्रन्थ मे कुछ उलूल-जुलूल चीजें मिला दी हैं । आप भी मानेंगे कि अधिकांश ग्रन्थ याददास्त (स्मृति) पर आधारित थे , कोई "हार्ड-कापी" जैसी चीज नही थी ; जिसके वजह से मिलावट में काफी आसानी रही होगी । और ये भी तो देखिये कि इन ग्रन्थों ने कैसे-कैसे समय देखे हैं । और बहुत से लोगों का मानना है कि वर्ण-व्यवस्था केवल शास्त्रीय चीज थी जो कभी व्यवहार में कभी आयी ही नहीं । आपका क्या खयाल है ?
अनुनाद
शास्त्र और व्यवहार में प्रायः एक अन्तराल होता है, इसलिए यह माना जा सकता
है कि वर्ण-व्यवस्था व्यवहार में ठीक वैसी ही नहीं रही होगी जैसी वह शास्त्र में बतायी गयी है।
इसके अतिरिक्त क्षेत्रीय विविधताएं भी होंगी, लेकिन इस व्यवस्था का मूल -सोपानिक
सामाजिक ढ़ाँचा और सामाजिक गैर बराबरी पर आधारित वैचारिकी- कमोवेश
सदियों तक सर्वव्यापी रहा है और आज भी है।
जहाँ तक मूल पाठ में जोड़ घटाव की बात है तो इन शास्त्रों तक पंडितों की
ही पँहुच थी और कैसे कहा जा सकता है कि बाद में क्या जोड़ा गया है।तुलसीदास
के रामायण में शम्बूक "वध" की घटना वर्णित नहीं है, क्योंकि उस जमाने
तक कबीर जैसे सन्त वर्ण-व्यवस्था को वैचारिक स्तर पर जोरदार चुनौती दे चुके थे, इसलिए अनुमान तो
यह भी किया जा सकता है कि नीतिशास्त्रीय वक्तव्य ही बाद में डाले गये
हों,लेकिन पुनः इस अनुमान का भी कोई ठोस आधार नहीं है जैसे कि आपके
पहले अनुमान का कोई ठोस आधार नहीं है।
गेहूँ मे कंकड मिलाकर तो लोग बेचते हैं पर किसी को कंकड में गेहुँ मिलाकर बेचते नहीं देखा या सुना है ।
अनुनाद सिंह
The entire text of ManuSmriti has been compiled for delineating Brahmanical Social order. It discusses Chapter after chapters about rights, duties, punishment, penance etc. It's really impossible to overlook the entire text. Only apologists of hierarchical Brahmanical Social Order can overlook and dismiss the "politically incorrect" sections of the text as an interpolation.
गेहूँ क्या है और कंकड़ क्या इसके निर्णय में हड़बड़ी ठीक नहीं है।वैसे भी अगर हम सही metaphor नहीं चुन सकते तो बेहतर है कि metaphor के जरिए विचार नहीं करें।
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