22 June, 2006

भारत में अंगरेजिया अत्याचार

कल फिर एक अंगरेजिया अत्याचार का वृतान्त पढकर मन उत्तेजित हो उठा समाचारों में पढा कि बहुत ही अच्छे अंक प्राप्त करने वाली एक मेधावी छात्रा को दिल्ली के एक स्कूल में प्रवेश नहीं दिया गया छात्रा के कहे अनुसार इसका कारण उसकी अंगरेजी-बोलचाल में निपुणता की कमी है

अंगरेजिया अत्याचार के ऐसे ही किस्से अक्सर पढने-सुनने में आते रहे है कभी सुनने में आता हैं कि अमुक मिशनरी स्कूल के फादर ने एक बालिका को हिन्दी बोलने पर बुरी तरह पीटा और स्कूल से निकाल दिया कभी सुनने में आता है कि किसी बच्चे को किसी स्कूल की नर्सरी कक्षा में इस कारण प्रवेश नहीं दिया गया क्योंकि उसके माता-पिता का अंगरेजी ज्ञान "अपर्याप्त" था कभी ये सुनने में आता है कि कोई कृषि-वैज्ञानिक किसानों की सभा में अंगरेजी में बोलना शुरू कर दिया नामी-ग्रामी चिन्तकों और संयुक्त राष्ट्र संघ ने प्रतिपादित किया है कि शिशु की शिक्षा का माध्यम तब तक उसकी मातृभाषा ही होनी चाहिये जब तक वह दूसरी भाषा(जैसे,अंगरेजी) में कही या समझायी जा रही बात को ठीक-ठाक समझने न लगे हमारे देश में शिक्षा के सारे सिद्धान्तों को ताख रख कर बच्चों को शिक्षा नहीं बल्कि यातना दी जा रही है

भूरे अंगरेजों का सबसे बडा बहाना है कि अंगरेजी के बिना अच्छी शिक्षा नहीं दी जा सकती ( आंशिक-सत्य सर्वाधिक खतरनाक होता है ) कोई इनसे पूछे कि अंगरेजी के अल्प ज्ञान के बावजूद लोग इतने अच्छे कैसे कर जाते हैं और कोई अंगरेजी के बिना ही अच्छा कर रहा है तो उसके मार्ग में अंगरेजी का रोडा क्यों अटका रहे हो ?

जब मैं यू.के. में वेल्श-भाषियों और अमेरिका में स्पैनिश-भाषियों को अंगरेजी भाषा के गढ में अंगरेजी को चुनौती देते हुए पाता हूँ तो भारत के मैकाले-पूजकों को देखकर शर्म आती है वे लोग वहाँ अपनी भाषाओं के लिये हर दृष्टि से अंगरेजी के ही समान अवसर का प्राविधान चाहते हैं, या पा चुके हैं भारत के भूरे अंगरेजों में अंगरेजी की गुलामी इस कदर घर कर गयी है कि करीब आधा अरब हिन्दीभाषियों वाले भारत में ये हर जगह अंगरेजी ही अंगरेजी देखना चाहते हैं ऐसा लगता है कि भारत की भाषा-नीति ब्रिटेन और अमेरिका के हित को ध्यान में रखकर उनके ही एजेन्टों द्वारा बनायी और चलायी जा रही हो मुझे तो यह बात बहुत खटकती है बिल्कुल ऐसी ही स्थिति तो हमारे राजनैतिक गुलामी की भी थी मुट्ठी भर अंगरेज हमको पददलित किये हुए थे कैसे ? ऐसे ही बिचौलियों के सहारे, बडी आसानी से एक अंगरेज अधिकारी सौ बिचौलियों ( भूरे अंगरेजों ) को कन्ट्रोल करता था, सौ बिचौलिये लाखों सीधे-साधे भारतीयों का खून चूसते थे कन्ट्रोल की यही स्थिति सेना और पुलिस में भी थी हिन्दुस्तानी ही हिन्दुस्तानी से लडता या लडाया जाता था ; हिन्दुस्तानी ही हिन्दुस्तान को आजाद होने से रोकता था

अंगरेजी की विश्व-विजय का ध्वज भारत क्यों ढोए ? और विशेष रूप से तब जबकि हिन्दी बोलने वालों की तादात मूलरूप से अंगरेजी बोलने वालों से कहीं अधिक है अगर हमने सही नीति अपनायी तो भविष्य में (कोई पचास से सौ वर्ष में ?) अंगरेजों को हिन्दी सीखने पर मजबूर कर सकते हैं

भारत के स्वाभिमान के जागरण के दिन आ गये हैं हर स्वाभिमानी को इस दिशा में पहल करनी चाहिये हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को हर जगह अंगरेजी के समान या उससे अधिक अवसर का प्रावधान किया जाय जहाँ भी अंगरेजी की जरूरत नहीं है और जहाँ उसे कपटपूर्वक घुसाया गया है , वहाँ से अंगरेजी के अतिक्रमण को हटाया जाय

6 comments:

संजय बेंगाणी said...

लोक जागृति के लिए प्रयास करते रहें, कभी तो सवेरा होगा.

Sagar Chand Nahar said...

कुछ दिनों पहले कहीं पढ़ा था कि प्रवासी भारतीयों के सम्मेलन में भारत के एक वरिष्ठ लेखक, समाज सुधारक( नाम याद नहीं आ रहा )ने अपना प्रवचन हिन्दी में दिया तब उनके जाने के बाद साम बेसानिया ने अंग्रेजी में कहा मैं अपने पूर्व वक्ता के हिन्दी में दिये भाशण के लिये आप सबसे क्षमा चाहता हुँ........कुछ तो शर्म करो श्याम लाल सुथार उर्फ़ साम बेसानिया.. भारत में जन्म लेकर हिन्दी को इतनी तुच्छ समझते हो !!!!!!!

Manish Kumar said...

दरअसल इसके लिये हम सब दोषी हैं। सामाजिक जीवन में अंग्रेजियत के बढ़ते प्रभाव पर कभी संगठित होकर जन विरोध नहीं किया गया। हालत ये है कि हमने शिक्षा और रोजगार के लिये अंग्रेजी को इस कदर अनिवार्य बना दिया है कि अब तो न ये उगलते बनती है ना निगलते !

ई-छाया said...

मेरा यह मानना है कि अंग्रेजी जानना भी जरूरी है, अगर दुनिया जीतनी है, तो उसकी भाषा आना चाहिये। लेकिन हिंदी हमारी मातृभाषा है, उसका किसी भी तरह का अपमान नाकाबिलेबर्दाश्त है। आज भी भारत के जन जन की भाषा हिंदी ही है, और हिंदी ही रहेगी। हिंदी विरोधी भूरे अंग्रेजों को कभी जर्मनी में जाकर अंग्रेजी में बोलकर देखना चाहिये।

नीरज दीवान said...

हिन्दी हमारी भाषा है. उससे भी बड़ी बात कि दिल की भाषा है. मेरी मातृभाषा है. हम चिंताएँ तो करें किंतु इसे अंतरताने पर सर्वप्यापी करने में अपना योगदान जारी रखें. विचारोत्तेजक लेख के लिए धन्यवाद.

Anonymous said...

हे हे,

कहते हैं न की खाली डब्बे ज्यादा आवाज करते हैं ... :)

गलती किसी भाषा की नहीं है. यह तो बस उन लोगों की पहचान है जिनमे आत्मविश्वास की कमी है.

यह है तो हमेशा से होता आया है, औरतें जेवर पहन कर अपनी औकात दिखाने की कोशिश करती हैं.

हाथी अपने दांत दिखा कर अपनी पहचान बनाने की कोशिश करता है.

जो लोग मानसिक तौर पर कमजोर वह हमेशा इस प्रकार के तरीके अपनाते दिखेंगे.

तो अगली बार किसी को इस प्रकार की होशियारी मारते देख जायें, तो बस मुस्करा कर निकल जाइये क्यों की अब तो आप सच जानते हैं :)